जब पूरे चाँद की आधी रात थी
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
देख तड़प वह मेरी चांदनी छुप गयी
पर तुम ही न आये .
जब सावन की पहली बरसात थी
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
देख कर आंसूं वह मेरे बारिश भी रोने लगी
पर तुम ही न आये .
जब जाड़ों की ठिठुरती भोर थी
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
देख गम वह मेरा ओस भी पिघलने लगी
पर तुम ही न आये .
जब गर्मियों की सुरमई शाम थी
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
देख जलन मेरे दिल की सूरज भी जलने लगा
पर तुम ही न आये .
संग कोई नहीं था आंसू का सैलाब था
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
आंसूं बहते रहे जुबां चुप ही रही
पर तुम ही न आये .
मैं सोचता रहा
खुद से पूछता रहा
सवाल कितने किये जवाब एक न मिला
मैं तुझको बुलाता रहा खुद को रुलाता रहा
पर तुम ही न आये
क्या कभी आओगे तुम...?